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वीर-योद्धा रण-क्षेत्र में धराशायी हो गया,किन्तु सत्य की संचित सम्पत्ति फिर भी उसके साथ है | इसीलिए किसी दुसरे को उसका पिंडदान कराने की आवश्यकता नहीं है | वह स्वयम ही अपने रक्त से भीगी हुई मिट्टी के पिण्ड बनाकर अपने ही हाथ से अपने लिए पिंडदान करता है |– -स्व.आयुवानसिंह
आश्विन शुक्ला 13 संवत 1754 स्थान :- राजस्थान के तत्कालीन अमरसर परगने के गांव देवली और हरिपुरा के मध्य रण-क्षेत्र में कोई 200 सौ राजपूत वीरों के शवों के साथ सैकड़ों मुग़ल सैनिको के क्षत -विक्षत शव पड़े थे तो सैकड़ो योद्धा घायल हो मूर्छित पड़े थे | सियार,गिद्ध व अन्य मांस भक्षी जानवर व पक्षी आज मूर्छित व वीर गति को प्राप्त हुए योद्धाओं के शवों का मांस खाकर तृप्त हो रहे थे |
इसी युद्ध क्षेत्र में इन्ही घायलों के बीच महाप्रतापी राव शेखाजी के वंशज और खंडेला के राजा केसरीसिंह अजमेर के शाही सूबेदार नबाब अब्दुल्लाखां से लोमहर्षक युद्ध करते हुए अनगिनत घावों से घायल हो खून से लथपथ हो बेहोश पड़े थे | उनके शरीर से काफी खून बह चूका था | जब काफी देर बाद उन्हें कुछ होश आया तो उन्होंने धरती माता को अपना रक्त-पिंड देने के लिए अपना हाथ बढ़ा मुश्किल से थोड़ी मिटटी ले उसमे अपना खून मिलाने के लिए अपने शरीर पर लगे घावों को दबाया पर यह क्या ? उन घावों से तो खून निकला ही नहीं | क्योंकि उनके घावों से तो पहले ही सारा रक्त निकल कर बह चूका था सो अब कहाँ से निकलता | इस पर वीर राजा ने अपनी तलवार से अपने शरीर का मांस काट डाला पर शरीर से अत्यधिक रक्त बह जाने के चलते मांस के टुकड़े से भी बहुत कम रक्त निकला यह देख उनके समीप ही घायल पड़े उनके काका मोहकमसिंह ने पूछा -महाराज आप यह क्या कर रहे है ? प्रत्युतर में अर्ध मूर्छित राजा केसरी सिंह बोले कि- मैं धरती माता को अपने रक्त का पिंडदान अर्पित करना चाहता हूँ पर क्या करूँ अब मेरे शरीर में इतना रक्त ही नहीं बचा |
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